कवयित्री


कविता लिखूँ ,मै कविता पढ़ूँ ,
मै कविता से अपनी मोहब्बत करूँ,

कविता मे मेरी कवयित्री बसी ,
उस कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ ।


मेरी कविता की शोभा बढाती है ये ,
ख़ुशबू कविता मे फैलाती है ये ,

पूरी कविता में उसका ही वर्णन करूँ ,
इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ ।

( उसका वर्णन करता हूँ )

एक मासूम चेहरा, जिस पर बालों का पहरा रहे ,
निगाहें कहीं पड़ गई मुझपर, तो जख्म निगाहों का गहरा रहे ,

हर वक़्त उससे मिलने की ख़्वाहिश रखूँ ,
इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ।

( कवयित्री का कलम पर प्रभाव )

बोलो भी इस कलम का अब मै क्या करूँ ?

रोने पे उसके दुखी हो उठे ,
वो मुस्कुराये तो मोहब्बत की कविता ये बुने ,

मेरी चाहत को अपनी लिखावट ये दे ,
 कवयित्री पे ये भी पूर्ण विराम भरे ।

देख के ये सब मुझको हँसी आ गयी,
देखा जब उसे तो मानो परी आ गयी ,
जिसको देखा था सपनों मे वही आ गयी ,

अब तो उसकी रचना पर अपनी मै रचना करूँ ,
इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ ।

सपनों मे चेहरा पूरा दिखा था नहीं ,
जब देखा उसे मै रुक गया था वहीं,

नीले पोषक में थी वो कवयित्री वहाँ,
मानो एक नदी के किनारे मैं पौधा खड़ा,

आजकल सारी दुनिया से उसकी ही बातें करूँ,
मै उस कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ ।

शान ( उर्फ़ सुभम ) की कलम से। 


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