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Showing posts from October, 2015

कन्यादान के बाद

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"कन्यादान के बाद" कविता का शीर्षक इसलिए लिखता हूँ क्योकि यह कविता में मैंने एक पिता का दुःख बताया है । आप सब हसेंगे मगर जैसे पुत्र-वियोग होता है वैसेही पुत्री-वियोग भी होता है । इस कविता में मैंने यही पुत्री-वियोग को बताने की कोशिश की है । कन्यादान के बाद  नहीं आपबीती ये किसी की है ,  मैं आत्मा पे बीती कह देता हूँ । (मैं )पिता नहीं किसी पुत्री का, तब पर भी दुःख कन्यादान का बतलाता हूँ । जिन हाथों से उसको पाला था , उन्हीं हाथों से उसको विदा किया । दी क़ीमत भी उस लड़के की , संग बेटी को अपनी विदा किया । तेरा दिया तोहफ़ा गवाँ दिया , हाय राम ! ये कैसा मैंने सौदा किया ? जिसके बचपन से आँसू पोछे थे , उसे आज़ मैने ही रुला दिया । जो कल तक मेरे घऱ की रानी थी , आज किसी के घऱ की दासी बना दिया । तेरा दिया तोहफ़ा गवाँ दिया , हाय राम ! ये कैसा मैंने सौदा किया ? जब माँ उसकी, मुझको कुछ कह देती थी , मेरी ख़ातिर अपनी माँ से वो लड़ लेती थी । जिसने क़दम क़दम मेरा साथ दिया , कैसे मैंने उस कन्या का दान दिया ? तेरा दिया तोहफ़ा गवाँ दिया , हाय राम ! ये कैसा मैंन

कवयित्री

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कविता लिखूँ ,मै कविता पढ़ूँ , मै कविता से अपनी मोहब्बत करूँ, कविता मे मेरी कवयित्री बसी , उस कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ । मेरी कविता की शोभा बढाती है ये , ख़ुशबू कविता मे फैलाती है ये , पूरी कविता में उसका ही वर्णन करूँ , इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ । ( उसका वर्णन करता हूँ ) एक मासूम चेहरा, जिस पर बालों का पहरा रहे , निगाहें कहीं पड़ गई मुझपर, तो जख्म निगाहों का गहरा रहे , हर वक़्त उससे मिलने की ख़्वाहिश रखूँ , इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ। ( कवयित्री का कलम पर प्रभाव ) बोलो भी इस कलम का अब मै क्या करूँ ? रोने पे उसके दुखी हो उठे , वो मुस्कुराये तो मोहब्बत की कविता ये बुने , मेरी चाहत को अपनी लिखावट ये दे ,  कवयित्री पे ये भी पूर्ण विराम भरे । देख के ये सब मुझको हँसी आ गयी, देखा जब उसे तो मानो परी आ गयी , जिसको देखा था सपनों मे वही आ गयी , अब तो उसकी रचना पर अपनी मै रचना करूँ , इसलिए कवयित्री पे पूर्ण विराम भरूँ । सपनों मे चेहरा पूरा दिखा था नहीं , जब देखा उसे मै रुक गया था वहीं, नीले पोषक में थी वो कवयित्री वहाँ, मानो एक नदी के

रिश्ता

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                                                                                        रिश्ता दो दिलों के तार का बंधन होता है । एक रिश्ते का यह प्रकार भी होता है जो एक इंसान का खुद से हो । ऐसे रिश्ते को मनुष्य अपने स्वाभिमान या आत्म-सम्मान से जोड़ता है । अगर हम दो दिलों के रिश्ते की बात करें तो यह रिश्ते दो दिलों के बीच तब आते हैं जब उनका जो अपना खुद से रिश्ता होता है दोनों दिलों का, वह उन्हें एक दूसरे के रिश्ते की तरफ आकर्षित करता है । यह मुर्ख  मनुष्य के समझ से परे हैं ।  यह दो दिल एक दूसरे के रिश्ते से आकर्षित तब होते हैं जब उन्हें सामने वाले का स्वभाव , बातें करने का तरीका और कुछ समानताएँ जो एक दूसरे से मेल खाती हों, ऐसा महसूस हो ।  उपयुक्त अनुच्छेदों में हम सबने रिश्तों का मतलब और उनके प्रकार को जाना । अब रिश्तों को कैसे चलाना है यह जानना भी आवश्यक है क्योकि ये कोई वाहन नहीं जो डीज़ल या पेट्रोल से चलें । मेरा तो मानना है कि यह एक ऐसा साधन है जो समझौते से चलता है । जब तक ये समझौते होते रहेंगे तब तक ये रिश्तेरूपी वाहन चलते रहेंगे । इसे इंजन की नहीं त्याग की जरुरत होती

आज आप मिले...

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आज आप मिले, हमे देखा, ये आप के लिए नया होगा । हमारे ज़ेहन मे तो आप इस कदर बसीं हैं कि बंद आँखों से भी हर वक़्त आपका दीदार करते हैं । शान ( उर्फ़ सुभम ) की कलम से।  ………